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भोलेनाथ ने देवी पार्वती को यह कथा सुनानी शुरू की…
SAWAN : नारद जी ने एक बार भोलेशंकर की स्तुति और उनसे पूछा कि उन्हें प्रसन्न करने का सबसे उत्तम और सुलभ साधन क्या है। हे त्रिलोकीनाथ! आप तो निर्विकार और निष्काम हैं। आप तो आसानी से खुश हो जाते हैं। लेकिन फिर भी मैं जानना चाहता हूं कि आपको सबसे ज्यादा क्या पसंद हैं। इस पर शिवजी ने नारदजी से कहा कि उन्हें भक्तों के भाव ज्यादा प्रिय हैं लेकिन फिर भी वो उन्हें जरूर बताएंगे।
उन्होंने बताया कि उन्हें जल के साथ-साथ बिल्वपत्र बहुत पसंद हैं। अगर कोई अखंड बिल्वपत्र मुझे श्रद्धा से अर्पित करता है तो उस व्यक्ति को मैं अपने लोक में स्थान देता हूं। नारदजी ने शिवजी और माता पार्वती की वंदना की और अपने लोक वापस लौट गए। जब वो चले गए तब पार्वती जी ने शिवजी से पूछा कि वो यह जानना चाहती हैं कि उन्हें बेलपत्र इतने प्रिय क्यों हैं। कृपा करके मेरी जिज्ञासा शांत करें। शिवजी ने कहा कि बिल्व के पत्ते उनके जटा के समान हैं। उसका त्रिपत्र यानी तीन पत्ते, ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद हैं। उसकी शाखाएं समस्त शास्त्र का स्वरूप हैं। बिल्ववृक्ष को पृथ्वी का कल्पवृक्ष समझा जाता है। यह ब्रह्मा-विष्णु-शिवस्वरूप है।
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शिवजी ने कहा कि हे पार्वती! स्वयं महालक्ष्मी ने बिल्ववृक्ष के रूप में शैल पर्वत पर जन्म लिया था। यह भी एक कारण है कि बेल का वृक्ष मेरे लिए अतिप्रिय है। पार्वती जी कोतूहल में थीं कि महालक्ष्मी ने बिल्व का रूप धरा था। इसके बाद माता पार्वती ने पूछा कि आखिर महालक्ष्मी ने बिल्ववृक्ष का रूप क्यों लिया था? इसके पीछे एक कथा मौजूद है।
भोलेनाथ ने देवी पार्वती को यह कथा सुनानी शुरू की। उन्होंने कहा कि हे देवी, सत्ययुग में ज्योतिरूप में मेरे अंश का रामेश्वर लिंग था। इसका विधिवत पूजन ब्रह्मा आदि देवों ने किया था। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरे अनुग्रह से वाणी देवी भगवान विष्णु को सतत प्रिय हो गईं। इस प्रभाव से भगवान केशव के मन में वाग्देवी के लिए जो भी प्रीति उपजी हुई वह माता लक्ष्मी को नहीं भाई। ऐसे में लक्ष्मी देवी के मन में का श्रीहरि के प्रति कुछ दुराव पैदा हो गया। वह बेहद चिंतित थीं। ऐसे में वो रूठ कर परम उत्तम श्रीशैल पर्वत पर चली गईं वो भी चुपचाप। महालक्ष्मी ने इस पर्वत पर तप करने का निर्णय किया। इशके लिए वो उत्तम स्थान का चयन करने लगीं। महालक्ष्मी ने स्थान चुन लिया। शिवजी ने कहा कि उन्होंने मेरे लिंग विग्रह की उग्र तपस्या प्रारम्भ कर दी। उनकी तपस्या कठोरतम होती जा रही थी। कुछ समय बाद मेरे विग्रह से थोड़ा उर्ध्व में एक वृक्ष का रूप धारण कर लिया। अपने पत्तों और पुष्प द्वारा निरंतर मेरा पूजन करने लगीं। इस तरह के महालक्ष्मी ने एक करोड़ वर्ष तक घोर तप किया और आखिर में उन्हें मेरा अनुग्रह प्राप्त हुआ। शिवजी ने पार्वती जी को बताया कि इसके बाद उन्होंने लक्ष्मी जी को दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। महालक्ष्मी ने मांगा कि उनके प्रति श्रीहरि के हृदय में मेरे प्रभाव से वाग्देवी के लिए जो भी स्नेह उत्पन्न हुआ है वो खत्म हो जाए।
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शिवजी ने कहा कि उन्होंने महालक्ष्मी को समझाया कि श्रीहरि के मन में उनके अतिरिक्त किसी और के लिए कोई प्रेम नहीं है। वाग्देवी के प्रति श्रीहरि के मन में प्रेम नहीं बल्कि श्रद्धा है। यह सुनकर लक्ष्मी जी बेहद प्रसन्न हुईं। इसके बाद वो एक बार फिर से श्रीविष्णु के हृदय में स्थित होकर निरंतर उनके साथ विहार करने लगी। शिवजी ने कहा कि हे पार्वती! इस तरह महालक्ष्मी के हृदय का एक बड़ा विकार दूर हुआ। इसके बाद से ही लक्ष्मी जी उसी वृक्षरूपं में सर्वदा अतिशय भक्ति से भरकर यत्नपूर्वक मेरी पूजा करने लगी।
फिर शिवजी ने कहा हे पार्वती! यही कारण है कि बिल्व का वृक्ष, उसके पत्ते, फलफूल आदि मुझे बेहद पसंद है। ऐसे में मैं निर्जन स्थान में बिल्ववृक्ष का आश्रय लेकर रहता हूं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि बिल्ववृक्ष को सदा सर्वतीर्थमय एवं सर्वदेवमय मानना चाहिए। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। ऐसे में जो व्यक्ति बिल्वपत्र, बिल्वफूल, बिल्ववृक्ष अथवा बिल्वकाष्ठ के चन्दन से मेरी पूजा करता है वह भक्त मेरा बेहद प्रिय हो जाता है। इसे शिव के समान ही समझा जाए। जो व्यक्ति बिल्व से मेरा पूजन करता है उसे खुद स्वयं लक्ष्मीजी भी नमस्कार करती हैं। ऐसे में मेरी पूजा के लिए बेल के उत्तम पत्तों का ही उपयोग किया जाना चाहिए।
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