ज्योतिष शास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में कालसर्प (KaalSarpDosh) योग अथवा सर्प योग के विषय में विस्तार से उल्लेख मिलता है। भारतीय संस्कृति में नागों का विशेष महत्व है। यह योग तब बनता है, जब राहु और केतु के 180 अंश के मध्य सभी ग्रह आ जाते हैं।
ज्योतिषविद् ने बताया कि फलित ज्योतिष में कहा गया है कि ‘शनिवत राहु, कुजवत केतु’ अर्थात राहु का प्रभाव शनि के जैसा और केतु का प्रभाव मंगल के जैसा होता है। राहु के शरीर के दो भागों में सिर को राहु तथा धड़ को केतु माना गया है। ये छाया ग्रह हैं और जिस भाव में होते हैं अथवा जहां दृष्टि डालते हैं, उस राशि एवं भाव में स्थित ग्रह को अपनी विचार शक्ति से प्रभावित कर क्रिया करने को प्रेरित करता है।
बुद्धि को करता है भ्रमित
केतु जिस भाव में बैठता है उस राशि, उसके भावेश, केतु पर दृष्टिपात करने वाले ग्रह के प्रभाव में क्रिया करता है। केतु को मंगल के समान विध्वंसकारी माना जाता है। ये अपनी महादशा एवं अंतर्दशा में व्यक्ति की बुद्धि को भ्रमित कर सुख समृद्धि का ह्रास करता है।
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राहु जिस ग्रह के साथ बैठा होता है, यदि वह ग्रह अंशात्मक रूप से राहु से कमजोर है तो राहु अपना प्रभाव स्वयं देने लगता है और साथ में बैठे ग्रह को निस्तेज कर देते है। इस योग का विवेचन करते समय राहु का बाया भाग काल संज्ञक है, तभी राहु से केतु की ओर की राशियां ही कालसर्प योग की श्रेणी में आती हैं।
जिसे भी कालसर्प योग होता है, पंडित जिसकी कुंडली में इस योग को देख पाते हैं, उसे तुरंत किसी सिद्ध शिवालय पर कालसर्प दोष (KaalSarpDosh) निवारण पूजा की सलाह दी जाती है। उज्जैन, ओमरकारेश्वर समेत कई जगहों पर इसकी विशेष पूजा होती है।
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