Down Syndrome: डाउन सिंड्रोम (Down Syndrome) एक क्रोमोसोमल बीमारी है, जो बच्चे के विकास में रुकावट पैदा करती है. भारत में हर साल लगभग 1.3 लाख बच्चे डाउन सिंड्रोम के साथ जन्म लेते हैं, यानी हर 830 में से एक बच्चा इस बीमारी का शिकार होता है. Down Syndrome
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शारीरिक और मानसिक विकास में दिक्कत
यह तब होता है जब बच्चे में 21वें क्रोमोसोम की एक एक्स्ट्रा कॉपी मौजूद होती है, जिससे उसके शरीर में कुल 47 क्रोमोसोम हो जाते हैं, जबकि नॉर्मल बच्चों में 46 क्रोमोसोम होते हैं. इस एक्स्ट्रा क्रोमोसोम के कारण बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास में दिक्कत आती है.
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मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर में मॉलिक्यूलर जीनोमिक्स की वरिष्ठ सलाहकार ने बताया कि डाउन सिंड्रोम किसी भी उम्र में गर्भधारण करने वाली महिला के बच्चे को हो सकता है, लेकिन मां की उम्र 35 वर्ष से ज्यादा होने पर खतरा बढ़ जाता है. इस स्थिति के कारण बच्चों में चेहरे की विशेण बनावट, मानसिक विकास में देरी और दिल व पाचन संबंधी समस्याएं हो सकती हैं. हालांकि, समय पर पहचान, सही मेडिकल हेल्प और परिवार का सहयोग ऐसे बच्चों के जीवन को बेहतर बना सकता है.
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डाउन सिंड्रोम के लक्षण (Down syndrome symptoms)
डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों में कुछ खास शारीरिक, मानसिक और सेहत से जुड़ी विशेषताएं दिखाई देती हैं, जैसे-
चेहरा सपाट और आंखें बादाम के आकार की होती हैं.
गर्दन छोटी और हाथ की हथेली पर केवल एक रेखा होती है.
मसल्स में कमजोरी और जोड़ों में अधिक लचक होती है.
बच्चों की सीखने और बोलने में प्रॉब्लम होना.
ध्यान केंद्रित करने में दिक्कत होती है.
ल्यूकेमिया जैसी ब्लड डिसऑर्डर की संभावना बढ़ जाना
थायरॉयड, सुनने और देखने की समस्या होना.
पढ़ाई में एक्स्ट्रा हेल्प की जरूरत होती है.
जन्म से दिल की बीमारी और पाचन समस्याएं.
डाउन सिंड्रोम के कारण और बचाव के तरीके (Causes of Down syndrome and ways to prevent it)
डाउन सिंड्रोम का मुख्य कारण क्रोमोसोमल असामान्यता है, जो गर्भधारण के समय सेल्स डिवाइड होने में गलती के कारण होती है. इसका बचाव संभव नहीं है, लेकिन प्रेग्नेंसी में कुछ टेस्ट के जरिए इसका पता लगाया जा सकता है, जैसे- नॉन-इनवेसिव प्रीनेटल टेस्ट (NIPT), अल्ट्रासाउंड व ब्लड टेस्ट और कैरियोटाइप टेस्ट. TRENDING NOW
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मैनेजमेंट और उपचार (Management and treatment)
डाउन सिंड्रोम का कोई इलाज नहीं है, लेकिन सही देखभाल से ऐसे बच्चों का जीवन बेहतर बनाया जा सकता है. ऑक्यूपेशनल थेरेपी, स्पीच थेरेपी और पढ़ाई लिखाई में मदद से ऐसे बच्चों की मदद की जा सकती है.
Disclaimer: यह खबर आपको केवल जागरूक करने के मकसद से लिखी गई है. हमने इसको लिखने में सामान्य जानकारियों की मदद ली है. आप कहीं भी कुछ भी अपनी सेहत से जुड़ा पढ़ें तो उसे अपनाने से पहले डॉक्टर की सलाह जरूर लें.