दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यन्त पुण्यदायी महत्ता है
महाकालेश्वर मंदिर भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में स्थित, महाकालेश्वर भगवान का प्रमुख मंदिर है। पुराणों, महाभारत और कालिदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में इस मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यन्त पुण्यदायी महत्ता है। इसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, ऐसी मान्यता है।
मेघदूत में उज्जयिनी की चर्चा करते हुए इस मंदिर की प्रशंसा
महाकवि कालिदास ने मेघदूत में उज्जयिनी की चर्चा करते हुए इस मंदिर की प्रशंसा की है। १२३५ ई. में इल्तुत्मिश के द्वारा इस प्राचीन मंदिर का विध्वंस किए जाने के बाद से यहां जो भी शासक रहे, उन्होंने इस मंदिर के जीर्णोद्धार और सौन्दर्यीकरण की ओर विशेष ध्यान दिया, इसीलिए मंदिर अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर सका है। प्रतिवर्ष और सिंहस्थ के पूर्व इस मंदिर को सुसज्जित किया जाता है।
भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग में से सबसे खास है…
देश के अलग-अलग भागों में स्थित भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग में से सबसे खास है श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग। इन्हें द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक कहा गया है। इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म-जन्मांतर के सारे पाप समाप्त हो जाते हैं। वे भगवान शिव की कृपा के पात्र बनते हैं। भारत के हृदयस्थल मध्यप्रदेश के उज्जैन में पुण्य सलिला शिप्रा के तट के निकट भगवान शिव ‘महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग’ के रूप में विराजमान हैं। महाराजा विक्रमादित्य के न्याय की नगरी उज्जयिनी में भगवान महाकाल की असीम कृपा है। देशभर के बारह ज्योतिर्लिंगों में ‘महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग’ का अपना एक अलग महत्व है। कहा जाता है कि जो महाकाल का भक्त है उसका काल भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता। महाकाल के बारे में तो यह भी कहा जाता है कि यह पृथ्वी का एक मात्र मान्य शिवलिंग है।
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महाकाल की महिमा का वर्णन इस प्रकार से भी किया गया है …
आकाशे तारकं लिंगं पाताले हाटकेश्वरम् ।
भूलोके च महाकालो लिंड्गत्रय नमोस्तु ते ॥
इसका तात्पर्य यह है कि आकाश में तारक लिंग, पाताल में हाटकेश्वर लिंग तथा पृथ्वी पर महाकालेश्वर ही मान्य शिवलिंग है।
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के विशेष दर्शन
हर सोमवती अमावस्या पर उज्जैन में श्रद्धालु पुण्य सलिला शिप्रा स्नान के लिए पधारते हैं। फाल्गुनकृष्ण पक्ष की पंचमी से लेकर महाशिवरात्रि तक तथा नवरात्रि महोत्सव पर यहाँ महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के विशेष दर्शन, पूजन व रूद्राभिषेक होता है।
पौराणिक कथा के अनुसार
उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन का राज था। वह भगवान शिव के परम भक्त थे और शिवगुणों में मुख्य मणिभद्र नामक गण राजा चंद्रसेन के मित्र थे। एक बार राजा के मित्र मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को एक चिंतामणि प्रदान की जोकी बहुत ही तेजोमय थी।
राजा चंद्रसेन ने मणि को अपने गले में धारण कर लिया, लेकिन मणि को धारण करते ही पूरा प्रभामंडल जगमगा उठा और इसके साथ ही दूसरे देशों में भी राजा की यश-कीर्ति बढ़ने लगी। राजा के पर्ति सम्मा और यश देखकर अन्य राजाओं ने मणि को प्राप्त करने के लिए की प्रयास किए, लेकिन मणि राजा की अत्यंत प्रिय थी।
इस कारण से राजा ने किसी को मणि नहीं दी। इसलिए राजा द्वारा मणि न देने पर अन्य राजाओं ने आक्रमण कर दिया। उसी समय राजा चंद्रसेन भगवान महाकाल की शरण में जाकर ध्यानमग्न हो गए।
जब राजा चंद्रसेन बाबा महाकाल के समाधिस्थ में थे, तो उस समय वहां गोपी अपने छोटे बालक को साथ लेकर दर्शन के लिए आई। बालक की उम्र महज पांच वर्ष थी और गोपी विधवा थी।
राजा चंद्रसेन को ध्यानमग्न देखकर बालक भी शिव पूजा करने के लिए प्रेरित हो गया। वह कहीं से पाषाण ले आया और अपने घर में एकांत स्थल में बैठकर भक्तिभाव से शिवलिंग की पूजा करने लगा।
कुछ समय बाद वह भक्ति में इतना लीन हो गया की माता के बुलाने पर भी वह नहीं गया। माता के बार बार बुलाने पर भी बालक नहीं गया। क्रोधित माता ने उसी समय बालक को पीटना शुरू कर दिया औऱ पूजा का सारा समान उठा कर फेंक दिया।
ध्यान से मुक्त होकर बालक चेतना में आया तो उसे अपनी पूजा को नष्ट देखकरबहुत दुख हुआ। अचानक उसकी व्यथा का गहराई से चमत्कार हुआ।
भगवान शिव की कृपा से वहां एक सुंदर मंदिर निर्मित हुआ। मंदिर के मध्य में दिव्य शिवलिंग विराजमान था एवं बालक द्वारा सज्जित पूजा यथावत थी। यह सब देख माता भी आश्चर्यचकित हो गई।
जब राजा चंद्रसेन को इस घटना की जानकारी मिली तो वे भी उस शिवभक्त बालक से मिलने पहुंचे। राजा चंद्रसेन के साथ-साथ अन्य राजा भी वहां पहुंचे।
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सभी ने राजा चंद्रसेन से अपने अपराध की क्षमा मांगी और सब मिलकर भगवान महाकाल का पूजन-अर्चन करने लगे। तभी वहां रामभक्तश्री हनुमान जी सामने आए और उन्होंने गोप -बालक की गोद में बैठकर सभी राजाओं और उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित किया। अर्थात शिव के अतिरिक्त प्राणियों की कोई गति नहीं है। इस गोप बालक ने अन्यत्र शिव पूजा को मात्र देखकर ही, बिना किसी मंत्र अथवा विधि-विधान के शिव आराधना कर शिवत्व-सर्वविध, मंगल को प्राप्त किया है। यह शिव का परम श्रेष्ठ भक्त समस्त गोपजनों की कीर्ति बढ़ाने वाला है।
इसे लोक में यह अखिल अनंत सुखों को प्राप्त करेगा व मृत्योपरांत मोक्ष को प्राप्त होगा।इसी के वंश का आठवां पुरुष महायशस्वी नंद होगा, जिसके पुत्र के रूप में स्वंय नारायण कृष्ण नाम से प्रतिष्ठित होंगे। कहा जाता है भगवान महाकाल तब ही से उज्जयिनी में स्वयं विराजमान है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में महाकाल की असीम महिमा का वर्णन मिलता है। महाकाल को वहां का राजा कहा जाता है और उन्हें राजाधिराज देवता भी माना जाता है।
ज्योतिर्लिंग का नाम महाकालेश्वर रखा गया है
काल के दो अर्थ होते हैं. एक समय और दूसरा मृत्यु। महाकाल को महाकाल इसलिए कहा जाता है कि प्राचीन समय में यहीं से संपूर्ण विश्व का मानक समय निर्धारित होता था इसीलिए इस ज्योतिर्लिंग का नाम महाकालेश्वर रखा गया है। पौराणिक कथा के अनुसार इस शिवलिंग की स्थापना राजा चन्द्रसेन और गोप-बालक की कथा से जुड़ी है।
महाकाल की भस्म आरती
महाकालेश्वर मंदिर के मुख्य आकर्षणों में भगवान महाकाल की भस्म आरती, नागचंद्रेश्वर मंदिर, भगवान महाकाल की शाही सवारी आदि है। इस आरती की खासियत यह है कि इसमें ताजा मुर्दे की भस्म से भगवान महाकाल का श्रृंगार किया जाता है। इस आरती में शामिल होने के लिए पहले से बुकिंग की जाती है। लेकिन आजकल इसका स्थान गोबर के कंडे की भस्म का उपयोग किया जाता है परंतु आज भी यही कहा जाता है कि यदि आपने महाकाल की भस्म आरती नहीं देखी तो आपका महाकालेश्वर दर्शन अधूरा है।
जूना महाकाल के दर्शन
महाकाल के दर्शन करने के बाद जूना महाकाल के दर्शन जरूर करना चाहिए। कुछ लोगों के अनुसार जब मुगलकाल में इस शिवलिंग को खंडित करने की आशंका बढ़ी तो पुजारियों ने इसे छुपा दिया था और इसकी जगह दूसरा शिवलिंग रखकर उसकी पूजा करने लगे थे। बाद में उन्होंने उस शिवलिंग को वहीं महाकाल के प्रांगण में अन्य जगह स्थापित कर दिया जिसे आज जूना महाकाल कहा जाता है। हालांकि कुछ लोगों के अनुसार असली शिवलिंग को क्षरण से बचाने के लिए ऐसा किया गया।
प्रति बारह वर्ष में पड़ने वाला कुंभ मेला
प्रति बारह वर्ष में पड़ने वाला कुंभ मेला यहाँ का सबसे बड़ा मेला है, जिसमें देश-विदेश से आए साधु-संतों व श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगता है। महाकालेश्वर मंदिर के ऊपरी तल पर स्थित प्राचीन व चमत्कारी नागचंद्रेश्वर मंदिर वर्ष में एक बार केवल नागपंचमी को ही श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ खोला जाता है। यहाँ हर वर्ष श्रावण मास में भगवान महाकाल की शाही सवारी निकाली जाती हैं।
3 खंडों में विभाजित है
मंदिर परिसर में एक प्राचीन कुंड है।वर्तमान में जो महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग है वह 3 खंडों में विभाजित है। निचले खंड में महाकालेश्वर मध्य खंड में ओंकारेश्वर तथा ऊपरी खंड में श्री नागचन्द्रेश्वर मंदिर स्थित है। नागचन्द्रेश्वर शिवलिंग के दर्शन वर्ष में एक बार नागपंचमी के दिन ही करने दिए जाते हैं। मंदिर परिसर में एक प्राचीन कुंड है।
भगवान महाकालेश्वर का विशाल दक्षिणमुखी शिवलिंग है
गर्भगृह में विराजित भगवान महाकालेश्वर का विशाल दक्षिणमुखी शिवलिंग है। इसी के साथ ही गर्भगृह में माता पार्वती भगवान गणेश व कार्तिकेय की मोहक प्रतिमाएं हैं। गर्भगृह में नंदी दीप स्थापित हैए जो सदैव प्रज्वलित होता रहता है। गर्भगृह के सामने विशाल कक्ष में नंदी की प्रतिमा विराजित है।
उज्जैन का एक ही राजा है और वह है महाकाल बाबा
उज्जैन का एक ही राजा है और वह है महाकाल बाबा। विक्रमादित्य के शासन के बाद से यहां कोई भी राजा रात में नहीं रुक सकता। जिसने भी यह दुस्साहस किया हैए वह संकटों से घिरकर मारा गया। पौराणिक तथा और सिंहासन बत्तीसी की कथा के अनुसार राजा भोज के काल से ही यहां कोई राजा नहीं रुकता है। वर्तमान में भी कोई भी राजा मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री आदि यहां रात नहीं रुक सकता। राजा महाकाल श्रावण मास में प्रति सोमवार नगर भ्रमण करते हैं।
सिंहस्थ मेला
सिंहस्थ मेले के बारे में यह कहा जाता है कि जब समुद्र मंथन के पश्चात देवता अमृत कलश को दानवों से बचाने के लिए वहाँ से पलायन कर रहे थे, तब उनके हाथों में पकड़े अमृत कलश से अमृत की बूँद धरती पर जहाँ-जहाँ भी गिरी थी, वो स्थान पवित्र तीर्थ बन गए। उन्हीं स्थानों में से एक उज्जैन है। यहाँ प्रति बारह वर्ष में सिंहस्थ मेला आयोजित होता है।
उज्जैन का सिंहस्थ मेला बहुत ही दुर्लभ संयोग लेकर आता है इसलिए इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। इस दिन यहाँ दस दुर्लभ योग होते हैं, जैसे : वैशाख माह, मेष राशि पर सूर्य, सिंह पर बृहस्पति, स्वाति नक्षत्र, शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा आदि।