अजय शुक्ल
सुबह के कुहरे में वह सड़क के किनारे पद्मासन की मुद्रा में बैठा था–हथेलियों से आंखें बंद किए हुए। मेरे क़दम थम गए।”हे ब्रो” कुतूहलवश, मैंने उसे टोका, “कौन हो तुम? और यह बापू के बन्दर की तरह आंखे क्यों बंद कर रखी हैं? बाक़ी दोनों कहां हैं?”उसने आंखों पर से हथेलियां हटाईं और खोंखों कर हंसते हुए बोला, “सही पकड़े हैं…मैं वही हूं–तीन में से एक।”
“भाई, हो तो तुम मेरे जैसे आदमी लेकिन चलो थोड़ी देर के लिए तुम्हें बन्दर मान लेता हूं.. पर तुमने आंखें क्यों बंद कर रखी थीं अभी..और यह पद्मासन की मुद्रा..?”
वह खोंखों करके फिर हंसने लगा। बोला, “प्राइमरी में पढ़ा लेसन भूल गए क्या? सी नो ईविल–बुरा मत देखो?
“ओके, लेकिन तुम्हें यहां कुहरे में तुम्हें क्या बुराई दिख गई?”
“एक काम करो” वह बोला, “ज़रा, सड़क के उस पार जाकर झाड़ियों में देखो–पता चल जाएगा।”
मैं चार डग भर कर झाड़ियों में देखने लगा। कुहरे में कुछ न दिख रहा था। मैंने फ़ोन की फ़्लैश लाइट ऑन की और मेरी चीख निकल गई और मैं दौड़ कर वापस आ गया।
“अआ..अअअअअ अरेरे..र” मेरे कंठ से अवाज़ नहीं निकल रही थी।
वह फिर खोंखों करके हंसा और बोला, “क्या देखा?”
“वव..ववहां लल्ल..ल्हाश पड़ी है..लल् हुउलुहान” मैं बड़ी मुश्किल से बोल पाया।
“खोंखोंखों…खोंखोंखों” वह फिर हंसने लगा, “अब समझे मैंने आंखें क्यों बंद कर ली थीं। दसअसल तुम्हारे आने से कुछ मिनट पहले ही यह मर्डर हो रहा था। मैंने मक़तूल की पहली चीख सुनते ही आंखें बंद कर लीं।”
“हे राम” मैंने प्रकम्पित कंठ से पूछा, “क्या बुरा मत देखो वाली सीख का यही मतलब था? गांधी होते तो क्या यही करते?”
“लेकिन मैं गांधी नहीं। मैं बन्दर हूं। समझदार बन्दर। नोआखाली जाना आसान होता है लेकिन जब गोडसे तमंचे पर डिस्को दिखाता है तो गले से अंतिम शब्द वही निकलते हैं…”
“क्या?”
“वही जो अभी तुम्हारे गले से निकला था–हे राम।”
“पर यह तो सिद्धांत की ग़लत व्याख्या है। अपराध होते देखना और उसे न रोकना भी अपराध की श्रेणी में आता है”
“तुम आइपीसी की बात कर रहे हो…पर मैंने कुछ देखा ही कहां? फिर, मैं ठहरा बन्दर। पेड़ों पर कूदते-फांदते मैं इड़ी-दुड़ी-तिड़ी हो जाऊंगा। वैसे, हमारे मंकी पीनल कोड, एमपीसी में ऐसा इस तरह का कोई क़ानून नहीं है। एमपीसी की प्रस्तावना में साफ लिखा है: खाय के पर रहो, देख के टर रहो।”
मैं अवाक्। मेरे पास शब्द नहीं थे। मैं भागना ही चाह रहा था कि वह बोला, “अच्छा यह बताओ कि यहां से तुम कहां जाओगे?”
“घर–और कहां?”
“क्यों–थाने को लाश के बारे में इत्तला नहीं करोगे?”
“क्यों–मुझे कुत्ते ने काटा है?”
“गुड। तुम्हे कुत्ते ने नहीं, किसी बन्दर ने काटा है इसीलिए अब तुम मेरी तरह होते जा रहे हो। तुम्हारा बन्दरीकरण हो रहा है। इसे रिवर्स एवोल्यूशन कहते हैं। देखना एक दिन इस धरती पर किंगडम ऑफ एप्स क़ायम होगा।”
मैं बन्दर के ज्ञान के आगे नतमस्तक होता जा रहा था। कुहरा खत्म होता जा रहा था। खुद को गांधी का बन्दर बताने वाला शख्स मुझे अब अपने जैसा आदमी दिख रहा था। उधर, दूसरे छोर पर पड़ी लाश से बहकर आया खून सड़क पर बड़ा-सा धब्बा बना चुका था।
मैंने अपने रैशनल सेल्फ को चिकोटी काटी। सोचने लगा कि यह आदमी कोई नटवरलाल टाइप टप्पेबाज़ तो नहीं, जो नक़ली लाश दिखा कर मुझ मॉर्निंग वॉकर को लूटना चाहता है। सहसा मुझे याद आया कि मैं पत्रकार हूं। मैं उसे प्रेसकार्ड दिखाकर हड़काने लगा।
जवाब में उसने भी जेब से एक कार्ड निकालकर मुझे पकड़ा दिया। यह प्रख्यात दैनिक द फेक टाइम्स का कार्ड था। “विश्वास करो, मैं हक़ीक़त हूं।” उसने कहा, “जैसे नारद का बन्दर बनना सामान्य बात है वैसे ही बन्दर आदमी बनना कोई बड़ी बात नहीं। अगर तुम्हें पौराणिक इतिहास-विज्ञानऔर गौरवशाली अतीत का ज्ञान होगा तो तुम्हें ऐसे चमत्कारों पर कोई शक़ होना भी नहीं चाहिए। शक़ कुफ्र है। शक़ ग़द्दारी है।”
तभी पास के बगीचे से कोयल के कूकने की आवाज़ सुनाई दी। बन्दर उछल पड़ा, ” अहा, बसन्त आ गया। मिल गई आज की लीड स्टोरी…बनन मा बागन मा बगरयो बसन्त है।”इतना कहकर बसन्तखोजी मर्कट कोयल की वीडियोग्राफी करने चल दिया। मैं हतप्रभ खड़ा था कि वह पलट कर बोला, “कायाकल्प की कहानी सुनना हो तो कल शाम गंगा किनारे गोलाघाट की सीढ़ियों पर मिलना। तुमको एक्सक्लुसिव स्टोरी भी मिल जाएगी:नर या वानर।”
अजय शुक्ल (वरिष्ठ पत्रकार)