दर्शन मात्र कर लेने से व्यक्ति सभी पाप- दोष दूर
हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। ये संख्या में १२ है। इससे पहले हम आपको पहला ज्योतिर्लिंग सोमनाथ के बारे में बता चूके है आज हम आपको दूसरे तीर्थस्थल श्रीमल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के बारे में बताने जा रहे है. ऐसा कहां जाता हैं कि सावन महिने में किसी भी एक शिवलिंग के दर्शन मात्र कर लेने से व्यक्ति सभी पाप- दोष दूर हो जाते है।
भारतीय राज्य आंध्र प्रदेश में श्रीशैलम में स्थित है। यह शैव और शक्ति दोनों के हिंदू संप्रदायों के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस मंदिर को भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक और देवी पार्वती के अठारह शक्तिपीठों में से एक के रूप में जाना जाता है। यह मंदिर श्री शैला पर्वत जो की दक्षिण भारत का कैलाश माने जाने वाले पर्वत पर स्थित है। श्री शैला पर्वत आंध्र प्रदेश के दक्षिणी भाग में कृष्णा नदी के तट पर आता है।
अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है
इसे दक्षिण का कैलाश कहते हैं। अनेक धर्मग्रन्थों में इस स्थान की महिमा बतायी गई है। महाभारत के अनुसार श्रीशैल पर्वत पर भगवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। कुछ ग्रन्थों में तो यहाँ तक लिखा है कि श्रीशैल के शिखर के दर्शन मात्र करने से दर्शको के सभी प्रकार के कष्ट दूर भाग जाते हैंए उसे अनन्त सुखों की प्राप्ति होती है और आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है।
यह भी खबरें पढें :
#SAWAN : मानसिक शांति और ऊर्जा प्रदान करता है यह पावन व्रत…
ऐसा ज्योतिर्लिंग जहां तीन प्रसिद्ध नदियों का होता हैे “महासंगम”
महाशिवरात्रि के दिन लगता है मेला
यहाँ पर महाशिवरात्रि के दिन मेला लगता है। मन्दिर के पास जगदम्बा का भी एक स्थान है। यहाँ माँ पार्वती को ष्भ्रमराम्बाष् कहा जाता है। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की पहाड़ी से पाँच किलोमीटर नीचे पातालगंगा के नाम से प्रसिद्ध कृष्णा नदी हैं जिसमें स्नान करने का महत्त्व शास्त्रों में वर्णित है।
पौराणिक कथानक
शिव पार्वती के पुत्र स्वामी कार्तिकेय और गणेश दोनों भाई विवाह के लिए आपस में कलह करने लगे। कार्तिकेय का कहना था कि वे बड़े हैं इसलिए उनका विवाह पहले होना चाहिए किन्तु श्री गणेश अपना विवाह पहले करना चाहते थे। इस झगड़े पर फैसला देने के लिए दोनों अपने माता-पिता भवानी और शंकर के पास पहुँचे। उनके माता-पिता ने कहा कि तुम दोनों में जो कोई इस पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले यहाँ आ जाएगा उसी का विवाह पहले होगा। शर्त सुनते ही कार्तिकेय जी पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए दौड़ पड़े। इधर स्थूलकाय श्री गणेश जी और उनका वाहन भी चूहा भला इतनी शीघ्रता से वे परिक्रमा कैसे कर सकते थे। गणेश जी के सामने भारी समस्या उपस्थित थी। श्रीगणेश जी शरीर से ज़रूर स्थूल हैं किन्तु वे बुद्धि के सागर हैं। उन्होंने कुछ सोच-विचार किया और अपनी माता पार्वती तथा पिता देवाधिदेव महेश्वर से एक आसन पर बैठने का आग्रह किया। उन दोनों के आसन पर बैठ जाने के बाद श्रीगणेश ने उनकी सात परिक्रमा की फिर विधिवत् पूजन किया.
पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति यः।
तस्य वै पृथिवीजन्यं फलं भवति निश्चितम्।।
चतुर बुद्धि को देख कर शिव और पार्वती हुए प्रसन्न
इस प्रकार श्रीगणेश माता-पिता की परिक्रमा करके पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त होने वाले फल की प्राप्ति के अधिकारी बन गये। उनकी चतुर बुद्धि को देख कर शिव और पार्वती दोनों बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीगणेश का विवाह भी करा दिया। जिस समय स्वामी कार्तिकेय सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके वापस आये उस समय श्रीगणेश जी का विवाह विश्वरूप प्रजापति की पुत्रियों सिद्धि और बुद्धि के साथ हो चुका था। इतना ही नहीं श्री गणेशजी को उनकी सिद्धि नामक पत्नी से क्षेम तथा बुद्धि नामक पत्नी से लाभ ये दो पुत्ररत्न भी मिल गये थे। भ्रमणशील और जगत् का कल्याण करने वाले देवर्षि नारद ने स्वामी कार्तिकेय से यह सारा वृत्तांत कहा सुनाया। श्रीगणेश का विवाह और उन्हें पुत्र लाभ का समाचार सुनकर स्वामी कार्तिकेय जल उठे। इस प्रकरण से नाराज़ कार्तिक ने शिष्टाचार का पालन करते हुए अपने माता-पिता के चरण छुए और वहाँ से चल दिये।
माता-पिता से अलग होकर कार्तिक स्वामी क्रौंच पर्वत पर रहने लगे। शिव और पार्वती ने अपने पुत्र कार्तिकेय को समझा-बुझाकर बुलाने हेतु देवर्षि नारद को क्रौंचपर्वत पर भेजा। देवर्षि नारद ने बहुत प्रकार से स्वामी को मनाने का प्रयास कियाए किन्तु वे वापस नहीं आये। उसके बाद कोमल हृदय माता पार्वती पुत्र स्नेह में व्याकुल हो उठीं। वे भगवान शिव जी को लेकर क्रौंच पर्वत पर पहुँच गईं। इधर स्वामी कार्तिकेय को क्रौंच पर्वत अपने माता-पिता के आगमन की सूचना मिल गई और वे वहाँ से तीन योजन अर्थात् छत्तीस किलोमीटर दूर चले गये। कार्तिकेय के चले जाने पर भगवान शिव उस क्रौंच पर्वत पर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गये तभी से वे मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। मल्लिका माता पार्वती का नाम है जबकि अर्जुन भगवान शंकर को कहा जाता है। इस प्रकार सम्मिलित रूप से मल्लिकार्जुन नाम उक्त ज्योतिर्लिंग का जगत् में प्रसिद्ध हुआ।
कुछ ऐसा है श्रीशैलम के मंदिर का इतिहास
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का इतिहास शातवाहन राजवंश के शिलालेख बताते हैं। इन शिलालेखों से पता चलता है कि यह मंदिर दूसरी शताब्दी से अस्तित्व में हैं। मंदिर के अधिकांश आधुनिक जोड़ विजयनगर साम्राज्य के राजा हरिहर प्रथम काल से मिलते हैं।
श्री शैलम मंदिर की संरचना
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के अंदर भी कई मंदिर बने हुए हैं जिनमें मल्लिकार्जुन और भ्रमराम्बा सबसे प्रमुख मंदिर हैं। यहां सबसे उल्लेखनीय और देखने लायक विजयनगर काल के दौरान बनाया गया मुख मंडप है। मंदिर के केंद्र में कई मंडपम स्तंभ हैं और जिसमें नादिकेश्वरा की एक विशाल दर्शनीय मूर्ति भी है।
सुन्दर मण्डप का निर्माण
आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व श्री विजयनगर के महाराजा कृष्णराय यहाँ पहुँचे थे। उन्होंने यहाँ एक सुन्दर मण्डप का भी निर्माण कराया था जिसका शिखर सोने का बना हुआ था। उनके डेढ़ सौ वर्षों बाद महाराज शिवाजी भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन हेतु क्रौंच पर्वत पर पहुँचे थे। उन्होंने मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर यात्रियों के लिए एक उत्तम धर्मशाला बनवायी थी। इस पर्वत पर बहुत से शिवलिंग मिलते हैं।